*: : भारतरत्न डॉक्टर बाबासाहेब भीमराव आम्बेडकर : :
*प्रस्तावना :*
कुछ महापुरुष ऐसे होते हैं जो आक्रमणकारियों एवं देशद्रोहियों से संघर्ष करते हैं और कुछ महापुरुषों को समाज में व्याप्त कुरीतियाँ समाप्त करने के लिये अपनों से ही संघर्ष करना पड़ता है। पहले प्रकार के महापुरुष स्वाभाविक रूप से संपूर्ण समाज की मान्यता प्राप्त करते हैं, जबकि समाज में दूसरे प्रकार के महापुरुषों के कुछ तो भक्त होते हैं जो अंधभक्ति की सीमा तक जाते हैं और कुछ निन्दक होते हैं जो उनकी हर बात के लिये निन्दा करते हैं। अत: दूसरे प्रकार के महापुरुषों के जीवन का इन दोनों छोरों की ओर न जाते हुए अध्ययन किया जाना आवश्यक है। स्वाधीन देश में विदेशियों से सीधे संघर्ष की स्थिति हमेशा न होने के कारण किसी न किसी रूप में समाजसुधार और समाजोन्नति ये ही मुख्य कार्य होते हैं। इस दृष्टि से दूसरे प्रकार के महापुरुषों के जीवन का अध्ययन अत्यन्त उपयोगी सिद्ध होता है। समाज के वंचित, शोषित, पीड़ित और उपेक्षित वर्ग की उन्नति के लिये जीवन भर संघर्ष करने वाले दो महापुरुष महात्मा फुले और डॉक्टर अम्बेडकर के जीवन का पुण्यस्मरण इसी विचार को सामने रखकर किया जाना चाहिए।
*भीमराव, चौदहवाँ रतन :*
बाबा साहब के दादा मालोजी का गाँव 'आम्बावड़े' रत्नागिरि जिले के एक कस्बे मण्डनगढ़ से पाँच मील दूर था। इस ग्राम के नाम से सभी लोग उनके परिवार को 'आम्बावाडेकर' उपनाम से पुकारा करते थे। उनके पूर्वज अपने गाँव में धार्मिक त्यौहारों के समय देवी देवताओं की पालकियाँ उठाने का काम करते थे, जो उनके पारिवारिक सम्मान का द्योतक था।
बाबा साहब के पिता रामजी सकपाल थे। सेना की अनिवार्य शिक्षा के कारण अपने पिता मालोजी के साथ रहते हुए ये भी शिक्षित हो गये थे। पूना के नॉर्मल स्कूल से शिक्षक प्रशिक्षण प्राप्त कर ये चौहद वर्ष तक सैनिक विद्यालय में प्रधानाध्यापक रहे। मराठी भाषा पर उनका अधिकार था तथा अंग्रेजी भी जानते थे, एवं गणित में प्रवीण थे। ये कबीर पंथी होने के कारण मांस-मदिरा का सेवन नहीं करते थे। क्रिकेट व फुटबाल में उनकी रूचि थी। महात्मा फुले के प्रशंसक, समाज-कल्याण के कार्यों में सक्रिय, स्वभाव से गम्भीर एवं अनुशासक प्रिय थे। आप सूबेदार मेजर के पद से सेवानिवृत्त हुए।
बाबा साहब की माता भीमा बाई थी। इनका पीहर मुम्बई के निकट थाणे जिले के 'मुरबाड़' गाँव में था। इसी से परिवार का उपनाम था मुरबाड़कर । इनका परिवार धनी, धार्मिक तथा समाज में प्रतिष्ठा प्राप्त था, क्योंकि उनके पिता और छ: चाचा सेना में सूबेदार मेजर थे, जो उस समय ब्रिटिश सेना में किसी भारतीय को प्राप्त हो सकने वाला सर्वोच्य पद था। इनका परिवार भी कबीर पंथी था। ऐसी कौटुम्बिक पृष्ठभूमि वाली भीमाबाई सुंदर व्यक्तित्व वाली मिलनसार, शांत व गम्भीर स्वभाव वाली धार्मिक महिला थी।
उपरोक्त वर्णन से ध्यान में आता है कि बाबा साहब का असर प्रारब्ध अत्यंत प्रबल था और दिव्य अवतरण की आधार भूमि अत्यंत उर्वर थी। इसके साथ पितृ-पुरूषों की साधना का सुयोग था। रामजी सकपाल के एक भाई संयासी हो गये थे।
जब रामजी सकपाल अपने परिवार सहित महू (इन्दौर) में रहते थे उस समय की घटना है। संयासी चाचा अपनी जमात के साथ निकल रहे थे। उस समय परिवार की एक स्त्री ने, जो पास ही नदी में कपड़े धो रही थी. उन्हें देखकर पहचान लिया। उसने दौड़कर घरवालों को सूचना दी। परिवार के सभी सदस्य संतों के विश्राम स्थल पर गये, उनका आदर-सत्कार किया तथा उनसे प्रार्थना की कि वे पधारकर घर को पवित्र करें। उन्होंने सन्यास की मर्यादानुसार घर आने से मना कर दिया किन्तु रामजी व भीमाबाई को आशीर्वाद दिया कि "अपने वंश की तीन पीढ़ियों में तीन पुरूष सन्यासी बन गये। घोर तपस्या कर तीनों ने भगवान से एक ही वर मांगा है कि 'हे भगवान! हमारे वंश में एक ऐसा पुत्र उत्पन्न कीजिए जो हमारे कुल का नाम सर्वत्र रोशन करें और अपने बंधुओं तथा धर्म के बुरे दिन समाप्त कर जाति और धर्म को प्रकाशित करें। भगवान ने वह वर दे दिया है। तुम्हारे यहाँ एक ऐसा पुत्र जन्म लेगा जो तुम्हारे परिवार को ही नहीं तुम्हारी समस्त जाति और देश को भी पवित्र कर देगा।" ।
आशीर्वाद के अनुरूप 14 अप्रैल, 1891 (चैत्र शुक्ल सप्तमी सं. 1948) को महू छावनी में भीमाबाई की कोख पवित्र करने जिस शिशु का अवतरण हुआ वह इस दम्पत्ति की चौदहवीं संतान थी। उसका नाम रखा गया भीम। जिस प्रकार समुद्र मंथन से चौदहवाँ व अंतिम रतन 'अमृत' प्राप्त हुआ था, उसी प्रकार यह शिशु भी बड़ा होकर स्वयं हलाहल पीकर अन्यों को अमृत बाँटने वाला शंकर ही सिद्ध हुआ ।
भीमराव के घर में संत कबीर के विचारों का प्रभाव था। माँ भीमाबाई, पिता रामजी और दादा मालोजी ये सभी संत कबीर के निर्गुणवाद के अनुयायी थे। इस वातावरण का बालक भीमराव पर भी परिणाम हुआ और चलकर उन्होंने जो तीन गुरु माने उनमें से एक संत कबीर थे। अन्य दो थे महात्मा गौतम बुद्ध और महात्मा फुले।
रामजी एक फौजी पाठशाला में प्रधान अध्यापक थे। उनका झुकाव आध्यात्म की ओर था, लेकिन वे सामाजिक समस्याओं के प्रति भी जागरूक थे। उन्होंने जिस महार जाति में जन्म लिया था उस जाति के लोगों की फौज में भरती पर रोक लगा दी गई थी। रामजी ने इसका जमकर विरोध किया जिसके फलस्वरूप यह रोक हटा दी गई और साथ ही महारों के बालकों को अनिवार्य शिक्षा सुविधा भी प्राप्त हुई।
*कुशाग्र बुद्धि :*
भीमराव बचपन से ही अत्यन्त कुशाग्र बुद्धि के थे। जब उनकी आयु मात्र 10 वर्ष की थी उस समय उनकी पाठशाला में न्यायमूर्ति रानाडे की 101 वीं जयन्ती मनाई गई। बालक भीमराव ने भी वहाँ भाषण दिया और कहा कि वे एक महान् पुरुष थे, न्याय की मूर्ति थे और न्याय करते हुए किसी से डरते नहीं थे। वास्तव में
भीमराव ने रानडे जी के जीवन का अध्ययन नहीं किया था। लेकिन दो बातों के आधार पर उन्होंने यह भाषण दिया। 1. सभास्थल पर लिखा था "न्यायमूर्ति रानडे की 101 वीं जयन्ती"। 2. सेना में महार जाति के लोगों की भरती पर लगी रोक के विरुद्ध रामजी ने जो अपील की थी उसके कागजपत्र रानडे जी ने ही तैयार किये थे। पिताजी के कागजात उलट-पलट करते समय भीमराव ने यह जाना था। इस तरह किसी विषय के बारे में थोड़ा सा जानकर उसके सारतत्त्व को समझना और वह दूसरों को अच्छी तरह समझाना, ये गुण उनमें बाल्यकाल से ही थे।
*घोर अन्याय :*
इतने बुद्धिमान बालक के साथ व्यवहार कैसा होता था? वे अपनी कक्षा के अन्य छात्रों के साथ नहीं बैठ सकते थे। उनके साथ खेल नहीं सकते थे। उनके साथ खा-पी भी नहीं सकते थे। सब उन्हें अपने से दूर रखते थे। इस व्यवहार का एक ही कारण था, महार जाति में उनका जन्म, जिसे अछूत माना जाता था। पगपग पर उनसे ऐसा व्यवहार किया जाता था कि वे तिलमिला उठते।
जातीय भेद भाव के कारन नई भी उनके बाल नहीं काटते थे, बाबासाहेब कि बहन ही उनके बाल काटती थी ,
एक बार बाबासाहेब गुरु जी के कहने पर किसी प्रश्न का उत्तर लिखने ब्लैक बोर्ड की तरफ बढ़े, इतने में उस कक्षा के सभी स्वर्ण विद्यार्थी रुको रुको कहकर ब्लैक बोर्ड की ओर दौड़ पड़े। क्योंकि उस बोर्ड के पीछे बच्चों के खाने का टिफिन रखा जाता था, जिसे उन्होंने जल्दी जल्दी निकाल लिया ताकि बोर्ड स्पर्श होने से उनके टिफिन अस्पृश्य ना हो जाए !
एक बार वे और उनके भाई किराया देकर एक बैलगाड़ी में बैठे। बाद में जब गाड़ीवान को मालूम हुआ कि वे महार जाति के हैं तो उसने गाड़ी रोकी और आगे से गाड़ी का जुआ ऊपर उठा दिया, जिससे दोनों बालक नीचे गिर पड़े। ऊपर से उसने उन्हें खूब गालियाँ भी दीं।
एक बार प्यास लगने पर भीमराव ने एक कुँए से पानी निकालकर पी लिया। इसी बात पर उसे खूब पीटा गया।
इन सब बातों के कारण बालक भीमराव के मन में विद्रोह की चिनगारी सुलग रही थी। लेकिन उस आयु में भी उनमें विचार करने की क्षमता थी। उन्हें समझ में आ गया था कि यदि जातिवाद में से उत्पन्न इस सामाजिक अन्याय को दूर करना है तो पहले खब पढ़ लिखकर बड़ा आदमी बनना पड़ेगा तभी कुछ किया जा सकता है। इसलिये अपमान के कड़वे यूंट पीकर भी वे पूरी लगन से पढ़ते रहे। पढ़ाई की ऐसी धुन उन पर सवार थी कि मूसलाधार वर्षा में भी स्वयम् भीगकर कापी-किताबों को बचाते हुए वे पाठशाला में पहुँच जाते थे, मित्रों और घरवालों के मना करने पर भी।
*आम्बावाडेकर से आम्बेडकर :*
भीमराव की तीव्र बुद्धि और लगन के कारण उनकी पाठशाला के आम्बेडकर नामक एक ब्राह्मण शिक्षक उन्हें बहुत प्यार करते थे। उन्होंने ही इनका नाम आम्बावाडेकर से बदलकर आम्बेडकर कर दिया। इस ब्राह्मण शिक्षक के कारण ही भीमराव के मन में समस्त ब्राह्मण जाति और सवर्ण वर्ग के प्रति दुर्भावना
उत्पन्न न हो सकी। वे जातिभेद से घृणा करते रहे लेकिन सवर्णों को उन्होंने अपना शत्रु कभी नहीं माना।
इस दौरान जब वे मात्र पाँच वर्ष के थे तभी उनकी माँ का स्वर्गवास हो गया। बाद में उनके पिता ने दूसरी शादी की। इस बात ने उनके स्वावलंबन के विचार को और भी अधिक दृढ़ बनाया।
आगे चलकर अधिक अच्छी तरह पढ़ने के लिये मुंबई जाने का विचार उनके मन में आया। लेकिन पास में पैसे नहीं थे। तब एक रात उन्होंने अपनी चाची का बटुआ चुरा लिया। परन्तु सुबह होते-होते उनका मन आत्मग्लानि से भर गया और क्षमा माँगते हुए आगे कभी भी गलत काम न करने का संकल्प उन्होंने लिया। इस संकल्प ने भी उन्हें बड़ा आदमी बनने में बहुत सहायता की।
अब भीमराव हमेशा पढ़ाई में लगे रहते थे। वे भूखे रह जाते, लेकिन अच्छी पुस्तकें खरीदकर पढ़ा करते थे। यह देखकर उनके अध्यापकों ने उनके पिता के पास उनकी प्रशंसा की। तब पिता ने यह तय किया कि भीमराव को ऊँची से ऊँची शिक्षा दिलायेंगे। उन्होंने उधार लेकर, पत्नी के गहने तक बेचकर भीमराव
के लिये पुस्तकों का प्रबंध किया।
भीमराव की पढ़ाई अच्छी तरह हो सके इसलिये उनका परिवार मुंबई गया जहाँ एलफिन्स्टन हाई स्कूल में उन्होंने प्रवेश लिया। उनका परिवार एक मजदूर कालोनी में रहने लगा। चूँकि घर एक ही कमरे का था इसलिए भीमराव जल्दी सो जाते और पिता जागते रहते। मध्यरात्रि में भीमराव उठते और उनके स्थान पर पिता सोते। फिर भीमराव सारी रात जागकर पढ़ा करते थे। इस तरह भीमराव के अध्ययन में उनके पिता का योगदान बहुत महत्त्वपूर्ण था।
हाई स्कूल में वे संस्कृत भाषा पढ़ना चाहते थे। लेकिन अपनी जाति के कारण वे संस्कृत नहीं पढ़ सके। इसका उन्हें बहुत दुख हुआ। परन्तु धुन के पक्के होने के कारण आगे चलकर उन्होंने संस्कृत भाषा पढ़ ही ली और उसका उन्हें बहुत उपयोग भी हुआ।
17 वर्ष की आयु में उन्होंने मेट्रिक की परीक्षा उत्तीर्ण की। महार जाति के किसी बालक के लिये उस समय यह बहुत बड़ी उपलब्धि थी, अत: उनका सार्वजनिक सम्मान किया गया। उसी वर्ष रमाबाई से उनका विवाह हुआ। बाद में उन्होंने एलफिन्स्टन कालेज में प्रवेश लिया। वड़ोदरा के महाराजा सयाजीराव गायकवाड़ द्वारा अछूत बालकों को दी जाने वाली छात्रवृत्ति (25 रुपये महीना) उन्हें मिली। 1912 में उन्होंने बी.ए. की उपाधि प्राप्त की।
बाद में वड़ोदरा में फौज में नौकरी की। 1913 में उनके पिता की मृत्यु हुई, लेकिन समय पर छुट्टी न मिलने के कारण उनकी पिता से अन्तिम समय भेंट न हो सकी जिसका उन्हें अतीव दुख हुआ, क्योंकि पिता के लिये उनके मन में अपार श्रद्धाभाव था। इसी कारण उन्होंने वह नौकरी ही छोड़ दी।
*विदेशों में अध्ययन :*
1913 में ही उन्हें वड़ोदरा के महाराजा की ओर से उच्च शिक्षा के लिये दो अन्य छात्रों के साथ अमरीका भेजा गया। इसके लिये उन्हें दस वर्ष तक वड़ोदरा राज्य में सेवा करने का अनुबंध करना पड़ा। उन्होंने अमरीका के कोलंबिया विश्वविद्यालय से 1915 में एम.ए. की उपाधि तथा बाद में 1916 में पीएच.डी. की उपाधि प्राप्त की। उनके शोध प्रबन्ध का शीर्षक था "Provincial Economic System in British India". आम्बेडकर जी ने अत्यन्त कृतज्ञता भाव से यह शोध प्रबन्ध महाराजा सयाजीराव को समर्पित किया, जो शोधकर्ता और राजनीतिज्ञों के लिये एक महत्त्वपूर्ण संदर्भ ग्रंथ बन गया।
(कोलंबिया विश्वविद्यालय ने 1952 में आंबेडकर जी को 'डॉक्टर ऑफ लाज’ मानद उपाधि प्रदत्त की और 1992 में अपनी स्थापना के 250 वर्ष पूर्ण होने के अवसर पर उस विश्वविद्यालय में अध्ययन करने वाले विख्यात विद्यार्थियों की जो सूची प्रकाशित की उसमें उनका नाम विशेष गौरव के साथ शामिल किया।)
बाद में वे अर्थशास्त्र में उच्च अध्ययन हेतु लन्दन की प्रसिद्ध London School of Economics and Law में गये। लेकिन कुछ ही समय बाद 1917 में उन्हें भारत लौटना पड़ा क्योंकि उनकी छात्रवृत्ति की अवधि समाप्त हो गई थी। जुलाई 1920 में उन्हें कोल्हापुर के शाहू महाराज की सहायता से दुबारा इंग्लैंड में पढ़ने का अवसर मिला और 1922 में वे बैरिस्टर बने। 1923 में उन्हें 'Problem of the Rupee' इस प्रबंध पर D.Sc. की उपाधि प्राप्त हुई । इस तरह इंग्लैंड में D.Sc. की उपाधि पाने वाले वे पहले भारतीय बने।
*वडोदरा में नौकरी :*
अनुबंध के अनुसार आम्बेडकर जी, जिन्हें अब लोग बाबासाहब कहने लगे थे, नौकरी करने के लिये वड़ोदरा गये। महाराजा सयाजीराव ने उनकी अगवानी का आदेश दिया था, फिर भी उन्हें लेने कोई भी स्टेशन नहीं पहुँचा, क्योंकि वे महार जाति के थे। इसी कारण से उन्हें होटलों में भी जगह नहीं मिली। भूखे प्यासे बाबासाहब को आखिर पारसियों की एक सराय में जगह मिली। महाराजा उन्हें वड़ोदरा के वित्तमंत्री बनाना चाहते थे, लेकिन उनके दीवान और अन्य लोगों ने इसका जबरदस्त विरोध किया। अन्त में उन्हें सेना के
सचिव का पद दिया गया। वहाँ चपरासियों तक ने उनका अपमान किया। वे फाइलें भी उनके हाथ में न देते हुए ऊपर से ही छोड़ देते थे कि कहीं उनका स्पर्श न हो जाय। पीने के लिये पानी भी नहीं देते थे। अन्तत: वे यह सब सहन न कर सके और 1917 के अन्त में मुंबई लौट आये। महाराजा भी उन्हें न रोक सके।
लेकिन यह सब भुगतते समय रातदिन उनके मस्तिष्क में विचार चक्र घूम रहा था। दलित जाति में जन्म लेने के "अपराध' की और कितनी सजा मिलेगी मुझे? मैं तो सोचता था कि पढ़ लिखकर कुछ काबिल बनूँगा तो लोगों के व्यवहार में अंतर आयेगा। आदर का नहीं तो कम से कम बराबरी का व्यवहार तो होगा। लेकिन यहाँ तो सामान्य चपरासी भी मेरा स्पर्श तक सहन करने को तैयार नहीं है।
मैं इतना पढ़ा-लिखा हूँ और बड़े पद पर हूँ, तब मेरा यह हाल है। फिर मेरे गरीब और अनपढ़ दलित बंधुओं के साथ कैसा व्यवहार होता होगा? कैसे सहन करते होंगे वे यह सब?.....नहीं, नहीं। अब मैं अपना सारा जीवन उन पर होने वाला सामाजिक अन्याय दूर करने में लगा दूँगा। लेकिन यह कैसे किया जाय?
महात्मा फुले जैसे महापुरुषों के कारण दलित वर्ग में शिक्षा का प्रचार तो हुआ है, लेकिन केवल शिक्षा ही पर्याप्त नहीं। मेरा ही उदाहरण सामने है। .....अब तो दलितों को संगठित कर इस अन्याय का विरोध करना होगा। .....अन्याय करने वालों को वैसा न करने के लिये मजबूर करना होगा।.....कुछ कड़े कदम भी उठाने पड़ेंगे।
*दलितों में जागरूकता के प्रयास :*
अपने विचारों को कृतिरूप देने के लिये बाबासाहब ने 1920 में मुंबई में "मूक नायक" नामक एक पत्रिका प्रारंभ की। दलितों के सामाजिक संघर्ष को प्रेरणा देने वाले लेख इसमें छपते थे। बाबासाहब का मानना था कि सामाजिक सुधार के बिना राजनीतिक सुधार, यहाँ तक कि स्वाधीनता भी, निरर्थक है। इसी कारण उन्होंने स्वाधीनता आन्दोलनों में हिस्सा न लेते हुए अपना सारा समय सामाजिक सुधार, सामाजिक समता और सामाजिक समरसता के कामों में लगाया। कोल्हापुर के छत्रपति राजर्षि शाहू महाराज भी दलितों के उद्धार में लगे हुए थे। उन्होंने उनके लिये निःशुल्क शिक्षा के प्रबंध किये और कइयों को नौकरियाँ भी दीं। अपने पूर्वायुष्य में महात्मा फुले से प्रेरणा लेने वाले शाहू महाराज, उन्हें अपना गुरु मानने वाले बाबासाहब आम्बेडकर के विचारों और कार्यों से भी बहुत प्रभावित थे। उनके "मूक नायक" को वे सब प्रकार की
सहायता करते थे।
बाबासाहब ने इतनी उपाधियाँ प्राप्त कर ली थीं कि यदि वे चाहते तो अच्छा-खासा धन कमाकर आराम की जिन्दगी जी सकते थे। लेकिन उन्होंने तो जातिवाद समाप्त करके समाज में समरसता प्रस्थापित करने का उच्च ध्येय अपने सामने रखा था। फिर वे सामान्य लोगों जैसा जीवन क्यों कर जीते? ध्येय प्राप्ति की दिशा में चलते हुए किये गये अनेक कामों के अंतर्गत 1924 में उन्होंने "बहिष्कृत हितकारिणी सभा" नामक संस्था प्रारंभ की जो दलितों के शैक्षणिक और आर्थिक उत्थान के लिये काम करती थी। इसके अंतर्गत शोलापुर में दलित छात्रों के लिये "विद्यार्थी निलय" और मुंबई में एक पुस्तकालय भी शुरू किया गया। महार जाति के लड़कों की एक हाकी टीम भी गठित की गई।
इसी समय उनकी पुत्री इन्दु और पुत्र राजरत्न की मृत्यु हो गई। उससे पहले भी उनके दो पुत्र रमेश और गंगाधर की मृत्यु हो चुकी थी। इन पारिवारिक दुर्घटनाओं से उन्हें बहुत दुख हुआ। खासकर राजरत्न की मृत्यु से, क्योंकि उन्हें उससे बहुत अधिक आशाएँ थीं। लेकिन इन सारे दुखों को सहकर भी वे अपना
काम निरंतर करते रहे।
*महाड सत्याग्रह :*
दलित लोग किसी की दया की भीखपर नहीं अपितु स्वाभिमान के साथ जीवन जिएँ ऐसी उनकी हार्दिक इच्छा थी। इस दृष्टि से कुछ आन्दोलनात्मक रुख अपनाया जाय ऐसा उन्हें लगने लगा। 1927 में कोलाबा जिले के महाड नामक स्थान पर "चवदार ताल" (सुस्वादु तालाब) के जल को लेकर विवाद उत्पन्न हुआ। उस तालाब से अछूतों को पानी नहीं लेने दिया जाता था। अत: बाबासाहब ने घोषणा की कि वे एक निश्चित दिन उस तालाब का पानी पियेंगे। इससे सवर्णों में खलबली मच गई। उस दिन महाड के तालाब पर बड़ी संख्या में अछूत इकट्ठे हो गये। उनके साथ बाबासाहब ने तालाब का पानी पिया। बाद में सवर्णों ने उन पर हमला किया। इस घटना ने सारे देश को झकझोर दिया। सबका ध्यान अछूतों के प्रश्न की ओर गया और उनके साथ समानता का व्यवहार होना चाहिए ऐसा प्रत्येक विचारवान हिन्दू को लगने लगा।
अछूतों के लिये आजीवन संघर्ष करने वाले महात्मा फुले की जन्मशताब्दी वर्ष में ऐसा अनूठा सत्याग्रह करके बाबासाहब ने मानो अपने गुरु को श्रद्धांजलि ही दी। (वैसे एक बात तो है। महात्मा फुले और बाबासाहब आम्बेडकर जैसे महापुरुषों के कारण समाज के वातावरण में कुछ परिवर्तन तो अवश्य ही हुआ है।
जहाँ महात्मा फुले की जन्मशताब्दी के समय उनका पुण्यस्मरण करना तो दूर रहा, तालाब के पानी के लिये भी सत्याग्रह करना पड़े ऐसा वातावरण समाज में था, वहीं बाबासाहब आम्बेडकर की जन्मशताब्दी के समय उन्हें " भारत रत्न "इस सर्वोच्च नागरिक सम्मान से अलंकृत किया गया।)
अछूत कहे जाने वाले लोगों में आई जागृति और आत्मविश्वास को और अधिक बल देने के लिये बाबासाहब ने स्थान-स्थान पर सभाएँ और दलित सम्मेलन किये। इनमें यह संकल्प लिया गया कि हिन्दू धर्म में जाति के आधार पर कोई भेदभाव नहीं होने दिया जायेगा। यह मांग भी की गई कि सभी जातियों के लोगों को मन्दिरों में पुजारी बनने की अनुमति होनी चाहिए। इसी अवधि में "मूक नायक" का प्रकाशन बन्द होने के कारण उन्होंने "बहिष्कृत भारत” नामक पाक्षिक शुरू किया जिसके माध्यम से वे दलित आन्दोलन की वैचारिक भूमिका समाज के सामने रखते थे।
*कालाराम मन्दिर सत्याग्रह :*
बाबासाहब ने 2 मार्च 1930 को नासिक के कालाराम मन्दिर में दलितों के प्रवेश हेतु अहिंसक सत्याग्रह शुरू किया, जिसके परिणामस्वरूप 8 अप्रैल 1930 को रामनवमी के अवसर पर सवर्ण - दलित मिलकर रामरथ खीचेंगे ऐसा समझौता हुआ। लेकिन ऐन वक्त पर किसी कारण से वह भंग होकर मारपीट हुई जिसके कारण बाबासाहब का मन कटुता से भर गया और वे कोई कड़ा कदम उठाने के बारे में सोचने लगे। अंतत: 1935 में कालाराम मन्दिर दलितों के लिये खुला, लेकिन यह अत्यंत ही दुर्भाग्यपूर्ण सत्य है कि उस समय हिन्दू समाज के ही एक अंग को मन्दिर में प्रवेश के लिये इतना बड़ा आन्दोलन करना पड़ा।
और तब की वास्तविकता यही थी कि सवर्ण समाज जातिवाद को छोड़ना नहीं चाह रहा था और इसी कारण दलित समाज के भारतीय सांस्कृतिक धारा से कटकर अलग हो जाने का खतरा सामने दिख रहा था। ऐसे में हिन्दू समाज को कोई झटका (Shock Treatment) देना आवश्यक हो गया था।
*हिन्दू समाज को झटका :*
पूज्य बाबासाहब ने ऐसा झटका दिया 13 अक्टूबर 1935 को मुंबई में आयोजित विशाल दलित सम्मेलन में, जब उन्होंने यह सार्वजनिक घोषणा की “मैं हिन्दू इस रूप में जन्मा हूँ, लेकिन हिन्दू इस रूप में मरूँगा नहीं"। उनकी इस घोषणा ने भारत भर में तहलका मचा दिया। एक ओर अनेक हिन्दू नेता उन्हें धर्म परिवर्तन के विचार से दूर करने का प्रयास करने लगे तो दूसरी ओर अनेक मुस्लिम और ईसाई नेता उन्हें अपने-अपने धर्म में लाने के प्रयास में जुट गये। लेकिन पूज्य बाबासाहब ने न तो जल्दी अपना निर्णय लिया और न ही किसी को अपने मन में चलने वाले विचारों का पता लगने दिया। वे तो धर्मपरिवर्तन की घोषणा के झटके के बाद हिन्दू समाज में जातिवाद की समाप्ति की दिशा में क्या होता है इसका निरीक्षण, अध्ययन और तदनुसार आवश्यक कृति करना चाहते थे।
*गोलमेज परिषद :*
विभिन्न आन्दोलनों के साथ-साथ वैधानिक स्तर पर दलित प्रश्न सुलझाने के लिये भी बाबासाहब के प्रयत्न चलते रहते थे। अक्टूबर 1930 में लंदन में प्रथम गोलमेज परिषद हुई, जिसका कांग्रेस ने नमक सत्याग्रह के कारण बहिष्कार किया। लेकिन बाबासाहब ने उसमें दलित प्रतिनिधि के रूप में हिस्सा लिया और पूर्ण स्वाधीनता की मांग के साथ-साथ अत्यंत प्रभावी तरीके से सबके सामने दलितों की समस्याएँ रखीं। अंग्रेजों ने दलितों को कुछ कानूनी अधिकार तो दिये, लेकिन साथ ही उन्होंने "फूट डालो-राज करो" इस नीति के अनुसार दलितों को शेष हिन्दुओं से अलग करने की कोशिश भी की जिसे बाबासाहब ने सफल नहीं होने
दिया।
1931 की दूसरी गोलमेज परिषद में भी बाबासाहब को बुलाया गया था। वहाँ जाने से पहले वे महात्मा गांधी से मिलने गये। गांधी जी ने दलितों के लिये कांग्रेस और स्वयम द्वारा किये जाने वाले प्रयासों की जानकारी दी और बाबासाहब के कांग्रेस और गांधी विरोध पर आश्चर्य व्यक्त किया। बाबासाहब ने भी स्पष्ट रूप से कहा कि कांग्रेस इस प्रश्न पर प्रामाणिकता से कार्य नहीं कर रही है, अन्यथा खादी की ही तरह अस्पृश्यता-विरोध भी कांग्रेस सदस्य बनने के लिये आवश्यक शर्त होती और किसी जिला कमेटी अध्यक्ष की दलितों के मन्दिर प्रवेश का विरोध करने की हिम्मत नहीं होती। (कालाराम मन्दिर सत्याग्रह के दौरान ऐसा ही हुआ था।) इस पर गांधीजी ने कुछ नहीं कहा और वह भेंट वहीं समाप्त हुई।
यह दुर्भाग्य ही है कि दलितों के लिए इतना कुछ करने वाले ये दोनों महापुरुष मिलकर काम नहीं कर सके और उनके मतभेद कटुता की सीमा तक बढ़े। बाबासाहब तो दलितों को गांधी जी द्वारा दिये गये नाम "हरिजन" का भी विरोध करते थे। उन्हें इस संबोधन से ही चिढ़ थी। वे गांधीजी की सदाशयता को तो स्वीकार करते थे, लेकिन उनका कहना था कि हरिजन नाम दे देने से सवर्ण स्वयम को हमेशा उपकारकर्ता ही मानते रहेंगे। इससे भेद दूर नहीं होगा। आवश्यकता नाम में परिवर्तन की नहीं, मानसिकता और व्यवहार में परिवर्तन की है।
दूसरी गोलमेज परिषद में दोनों ने ही हिस्सा लिया और उनके मतभेद सार्वजनिक रूप से प्रकट हुए।
ब्रिटिश सरकार के "सांप्रदायिक निर्णय" (Communal Award) के अन्तर्गत दलितों के लिए पृथक् निर्वाचन मण्डल का अधिकार दिया गया। इसके अनुसार आरक्षित निर्वाचन क्षेत्रों में प्रत्याशी तो दलित वर्ग के होते ही, लेकिन साथ ही उन निर्वाचन क्षेत्रों में मताधिकार भी केवल दलितों को होता। गांधीजी को यह बात मंजूर नहीं थी। इसलिए उन्होंने इसके विरुद्ध आमरण अनशन प्रारंभ कर दिया। आखिर बाबासाहब उनसे मिलने पुणे गये और वहाँ 1932 में दोनों के बीच प्रसिद्ध "पुणे-समझौता" हुआ जिसके अन्तर्गत 148 निर्वाचन क्षेत्र दलितों के लिये आरक्षित किये गये (जबकि सांप्रदायिक निर्णय के अन्तर्गत यह संख्या 78 थी), लेकिन मताधिकार सभी मतदाताओं को दिया गया।
बाबासाहब ने 1932 में तीसरी गोलमेज परिषद में भी हिस्सा लिया। परन्तु मुस्लिम लीग के नेताओं की कट्टरवादी विघटनकारी मनोवृत्ति के कारण इसमें से कुछ भी निष्पन्न नहीं निकल सका। बाबासाहब ने इस लीगी मनोवृत्ति को जमकर लताड़ा।
*साम्यवाद के विरोधी :*
दलित वर्ग के लिये काम करते हुए साम्यवादी विचार उन्हें कभी भी आकर्षक नहीं लगे। साम्यवादी धर्म को नहीं मानते थे और वे समाज परिवर्तन के लिये हिंसा का सहारा लेते थे इसलिए बाबासाहब साम्यवाद के विरोधी थे। उनका मानना था कि मनुष्य को केवल पेट नहीं होता, इसलिये वह केवल आर्थिक प्राणी नहीं है। धर्म के बिना मनुष्य अधूरा है ऐसी उनकी पक्की धारणा थी। लेकिन उनका यह भी मानना था कि धर्म बुद्धिवाद पर आधारित होना चाहिए। अर्थात् वे महात्मा फुले की ही तरह शब्द प्रामाण्य या ग्रंथ प्रामाण्य के स्थान पर बुद्धि प्रामाण्य पर विश्वास रखते थे। महात्मा बुद्ध का कथन *"आत्मदीपो भव"* उनके लिये एक दीपस्तंभ जैसा था। महात्मा बुद्ध की ही तरह वे शान्ति, दया और प्रेम के आधार पर जीनेवाला समाज चाहते थे। समाज की बुराइयों को भी वे इसी मार्ग से समाप्त करना चाहते थे।
*हिन्दू मान्यताओ के प्रति सम्मान :*
27 मई 1935 को उनके जीवन की अत्यंत दुर्भाग्यपूर्ण घटना घटित हुई। उनकी पत्नी रमाबाई की मृत्यु। उसने अपना सारा जीवन मूक रूप से बाबासाहब को समर्पित कर दिया था और मार्ग में आये सभी कष्टों को हँसते-हँसते झेला। बाबासाहब भी उसे बहुत मानते थे। इसलिए ऊपरी तौर पर अधार्मिक दिखनेवाले बाबासाहब ने विधिपूर्वक उसकी अन्तिम क्रिया पूरी की। यहाँ तक कि तत्कालीन मान्य परंपरा के अनुसार उन्होंने मुंडन भी किया। परन्तु उनके पास शोक करने के लिए समय नहीं था।
1 जून 1935 को शासन ने उन्हें प्राध्यापक के पद पर नियुक्त किया। लेकिन इससे उनके सामाजिक कार्यों में कोई बाधा नहीं आ सकी। अनेक प्रकार के सामाजिक कार्य और संघर्ष करते हुए भी उनका चिन्तन सतत् चल रहा था। वे कई-कई दिन तक बंद कमरे में बैठकर विचार किया करते थे। हिन्दु समाज में बन्धुत्व की भावना कब आयेगी?... और कितने कष्ट उठाने होंगे? जहाँ जानवर भी पानी पी सकते हैं वहाँ धर्म के नाम पर अपने ही धर्म बंधुओं को पानी पीने से रोकना महापाप नहीं है क्या ? भगवान् के मन्दिर में भक्तों का ही प्रवेश वर्जित? किस काम का है ऐसा भगवान्? किस काम है ऐसा धर्म? किस काम का है ऐसा समाज?.... यदि यह अत्याचार नहीं रुका तो मेरे दलित बन्धु साम्यवादी, ईसाई या मुसलमान बनकर अपनी महान भारतीय संस्कृति से ही नाता तोड़ बैठेंगे। फिर इस देश का क्या होगा? दलितों के मन का गुबार निकालने के लिये और सवर्णों को समझाने के लिये तुरंत ही कुछ करना होगा।.. लेकिन क्या किया जाये?
*विद्रोही बाबासाहब (इस विषय को ध्यान से समझना चाहिए)*
इन विचारों के परिणाम भी समय-समय पर दिखते थे। जैसे, उनके द्वारा कभी सवर्णों के विरुद्ध लिखा गया तो कभी धार्मिक कर्मकाण्डों के विरुद्ध । कभी मनुस्मृति जलाई गई तो कभी भगवान् राम-कृष्ण की निन्दा की गई। लेकिन यह भी याद रखना चाहिए कि मनुस्मृति जलानेवाले बाबासाहब ने आगे चलकर अपने ही बनाये संविधान के बारे में कहा, "यदि इस संविधान से दलितोद्धार के काम में सहायता न हुई तो मैं ही सबसे पहले इसे जलाऊँगा।" रही बात राम-कृष्ण की निन्दा की, तो यदि उनकी श्रद्धा न होती तो वे मन्दिर प्रवेश के लिये आन्दोलन ही न करते । वह आन्दोलन विफल होने के बाद और उस दौरान भीषण मारपीट जैसी घटना होने के कारण भगवान् पर गुस्सा आना स्वाभाविक ही था। कई लोग तो कुछ व्यक्तिगत नुकसान होने पर ही भगवान् को भला-बुरा कह देते हैं, लेकिन इसका अर्थ यह नहीं होता कि वे वास्तव में भगवान् को भला-बुरा कहना चाहते हैं। बाबासाहब ने तो सामाजिक बन्धुत्व के भाव को नुकसान होने के बाद भगवान् को भला-बुरा कहा।
जहाँ तक सवर्णों के विरुद्ध लिखने की बात है तो वह भी स्वाभाविक ही था, क्योंकि यह निर्विवाद रूप से ऐतिहासिक सत्य है कि उस समय एक समुदाय इस रूप में सवर्णों का व्यवहार वैसा ही था। फिर भी व्यक्तिगत रूप से बाबासाहब ने अनेक सवर्णों से अच्छे संबंध रखे। इतना ही नहीं, उन्होंने दलितोद्धार के काम में कई सवर्णों का सहयोग भी लिया। अर्थात उनका विरोध जातिवादी मनोवृत्ति से था, सवर्णों से नहीं। और निरर्थक धार्मिक कर्मकाण्डों का तो प्रत्येक समाज सुधारक ने विरोध किया है।
*चिन्तक बाबासाहब :*
वैसे तो बाबासाहब ने अपना अधिकतर समय दलित वर्ग के अधिकारों के लिये संघर्ष करने में बिताया, किन्तु सकारात्मक विचार भी उनके मन में आते रहते थे और वे अपनी सारी विद्वत्ता दाँव पर लगाकर उनका प्रतिपादन करते थे। जैसे, आर्य बाहर से आये इस सिद्धान्त का उन्होंने जोरदार खण्डन किया और सिद्ध किया कि आर्य यह जातिवाचक संज्ञा न होकर गुणवाचक संज्ञा है।
इसी तरह उन्होंने सिद्ध किया कि प्राचीन काल में जन्म के अनुसार चातुर्वर्ण्य नहीं था। यह विकृति बीच के काल में आई। और उस समय भी उसमें ऊँच-नीच की भावना नहीं थी। वह तो उस समय की एक समाज व्यवस्था थी जिसने बाद में जातिभेद, अस्पृश्यता इत्यादि बुराइयों को जन्म दिया।
उन्होंने यह भी सिद्ध किया कि वेदों और पुराणों के कई हिस्से ब्राह्मणेतर वर्ग ने भी बनाये थे। इन सब कामों में उनका संस्कृतज्ञान उनके बहुत काम आया।
*संघ विचार और बाबासाहेब :*
* डॉक्टर अंबेडकर "राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ" जैसे सर्वस्पर्शी संगठन से भी प्रभावित हुए बिना नहीं रह सके।
* संघ के शिविर में भी गए थे, वहां पर छुआछूत का नामोनिशान न देखकर वह अति प्रसन्न हुए।
* बाबासाहेब महाराष्ट्र के कराड़ के "भवानी शाखा" और "दापोली" की शाखा में भी गए थे।
* 1956 में डॉक्टर अंबेडकर जी से मिलने के लिए "दत्तोपंत ठेंगड़ी" भी गए थे दोनों का आपस में देर तक संवाद हुआ था।
* ठेंगड़ी जी ने लिखा है कि- "अनुसूचित जाति" और "कम्युनिज्म" के बीच डॉक्टर अंबेडकर बड़ी बाधा है ।
*बाबासाहब की महानता : प्रतिकुल सामाजिक परिस्थितियों में काम किया*
बाबासाहब की महानता का वास्तविक मूल्यांकन करने के लिये उन्होंने किन परिस्थितियों में कैसा काम किया इस पर विचार करना आवश्यक है। कहते हैं कि महाभारत युद्ध में अर्जुन और कर्ण का रथ का उदाहरण। संक्षेप में, अर्जुन के लिये परिस्थितियाँ अत्यंत अनुकूल थीं तो कर्ण के लिये अत्यंत प्रतिकूल। बाबासाहब ने भी अत्यंत प्रतिकुल सामाजिक परिस्थितियों में काम किया यह बात विशेष उल्लेखनीय है।
यह हम भारतीयों का दुर्भाग्य ही है कि पूज्य बाबासाहब जैसे प्रकाण्ड विद्वान् और चिन्तक को आजीवन सामाजिक समरसता के आन्दोलन में उलझे रहना पड़ा। यदि उस समय देश में जातिवाद की समस्या न होती और *"हिन्दवः सोदरा: सर्वे, न हिन्दः पतितो भवेत् "* तथा *"यदि अस्पृश्यता गलत नहीं है तो संसार में कुछ भी गलत नहीं है।"* इस तरह की आज की जानेवाली निःसंदिग्ध घोषणाएँ तब के प्रमुख धार्मिक और सामाजिक नेताओं ने की होती तो यह प्रकाशपुंज अपने असीम ज्ञान से सारे संसार को और भी अधिक आलोकित करता। लेकिन उसे तो कटू वास्तविकताओं का सामना करना था।
स्थानीय स्वायत्तता के आधार पर 1937 में होने वाले चुनावों में भाग लेने के लिये उन्होंने "स्वतंत्र मजदूर दल" की स्थापना की और वे मुंबई विधानसभा के सदस्य के रूप में निर्वाचित हुए। विधानसभा सदस्य इस रूप में उन्होंने दलित, किसान और मजदूरों के हित के अनेक काम किये। मई 1938 में उन्होंने प्राध्यापक पद से त्यागपत्र दिया और अपना सारा समय सामाजिक और राजनीतिक कामों के लिये देने लगे।
*मुस्लिम मानसिकता पर विचार*
1940 में पूज्य बाबासाहब ने "Thoughts on Pakistan" नामक पुस्तक लिखी। उस समय मुस्लिम लीग स्पष्ट रूप से पाकिस्तान की माँग कर चुकी थी और कांग्रेस नेता विभाजन की संभावना को नकार चुके थे। ऐसे में अपनी पुस्तक में उन्होंने स्पष्ट रूप से लिखा कि धर्म को राष्ट्र से ऊपर मानने की मनोवृत्ति के कारण मुसलमान भारत को मातृभूमि मानकर हिन्दुओं के साथ नहीं रह सकते। अत: उन्हें अलग कर वहाँ के हिन्दुओं को यहाँ लाना चाहिये और यहाँ के मुसलमानों को वहाँ भेज देना चाहिये। स्वाभाविक रूप से इन विचारों का जोरदार विरोध हुआ। लेकिन बाद में 1947 में जो दुर्भाग्यपूर्ण विभाजन हुआ वह बताता है कि पूज्य बाबासाहब ने मुस्लिम मानसिकता का कितना सही अध्ययन किया था।
उनके विचारों से असहमत तो हुआ जा सकता है, लेकिन उसमें जो कटु सत्य बताया गया है उसे कौन नकार सकता है?
*श्रम क्षेत्र में बाबासाहेब का योगदान :*
1942 में वे वाइसरॉय द्वारा मंत्रिमंडल में शामिल किये गये और उन्हें श्रम विभाग दिया गया। दलित वर्ग के किसी व्यक्ति को पहली बार इतना बड़ा पद दिया गया था।
श्रम मंत्रालय में रहते हुए उनके द्वारा किए गए विशिष्ट कार्य :
# (आज भारत में प्रतिदिन काम की अवधि लगभग 8 घंटे होती है। कितने भारतीयों को यह बात पता है कि डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर भारत में मजदूरों के श्रम उद्धारकर्ता थे।
उन्होंने भारत में दैनिक काम के घंटे 14 से घटाकर के 8 घंटे तय करवाए।
उन्होंने यह प्रस्ताव 27 नवंबर, 1942 को नई दिल्ली में भारतीय श्रम सम्मेलन के 7वें सत्र में प्रस्तुत किया।)
# बाबासाहेब आंबेडकर ने भारत में विभिन्न महिला मजदूरों के लिए कई कानूनों का निर्माण किया
- खान मातृत्व लाभ अधिनियम,
- महिला श्रमिक कल्याण कोष, '
- महिला एवं बाल श्रम संरक्षण अधिनियम,
- महिला श्रमिकों के लिए मातृत्व लाभ.
- कोयला खदानों में भूमिगत काम पर महिलाओं के रोजगार पर प्रतिबंध की बहाली
# भारतीय फैक्टरी अधिनियम
# राष्ट्रीय रोजगार एजेंसी (रोजगार कार्यालय) का गठन, दूसरे विश्व युद्ध की समाप्ति के बाद ब्रिटिश इंडिया
तात्कालिक सरकार में श्रम सदस्य के रूप में उन्होंने रोजगार कार्यालयों को गठित किया।
# इसी प्रकार ट्रेड युनियनों, मजदूरों, और सरकार के प्रतिनिधियों के माध्यम से श्रम मुद्दों को निबटाने के लिए त्रिपक्षीय पद्धति लागू की और सरकारी क्षेत्र में कौशल विकास पहल शुरू की।
# कर्मचारी राज्य बीमा (ईएसआई) श्रमिकों को चिकित्सा देखभाल में, चिकित्सा अवकाश, काम के दौरान घायल होने की वजह से शारीरिक विकलांगता में, कामगारों को क्षतिपूर्ति और विभिन्न सुविधाओं के प्रावधान में मददगार होता है। डॉ. आंबेडकर ने इसे श्रमिकों के लाभ के लिए प्रस्तुत और अधिनियमित किया था। वास्तव में पूर्वी एशियाई देशों में 'बीमा अधिनियम' लाने वाला भारत सबसे पहला राष्ट्र था। इसका श्रेय डॉ. आंबेडकर को ही जाता है।
# वित्त आयोग की सभी रिपोटों के लिए मूल संदर्भ स्रोत एक तरह से डॉ. आंबेडकर की पीएचडी थीसिस,
“ब्रिटिश भारत में प्रांतीय वित्त विकास” पर आधारित हैं, जो उन्होंने 1923 में लिखी थी।
# भारत की जल नीति और विद्युत के विकास के लिए नीति निर्माण और योजना बनाना उनकी चिंता का प्रमुख विषय था।
उनके जीवन का यह कालखण्ड श्रमिक क्षेत्र में उनके द्वारा किए गए योगदान के लिए जाना जाएगा।
*कांग्रेस और गांधीजी का विरोध :*
1945 में उनकी एक और बहुचर्चित पुस्तक प्रसिद्ध हुई "कांग्रेस और गांधी जी ने अछूतों के लिये क्या किया?" जिसमें उन्होंने बहुत स्पष्ट रूप से कहा है कि कांग्रेस और गांधी जी ने अछूतों का उपयोग केवल अपने राजनीतिक लाभ के लिये किया है।
पूज्य बाबासाहब ने 1941 में "बौद्ध जन पंचायत समिति", 1942 में "आल इंडिया शेड्यूल कास्ट फेडरेशन" और 1945 में "पीपल्स एजुकेशन सोसायटी" नामक विभिन्न संस्थाएँ प्रारंभ की जो यह दर्शाती हैं कि राजनीति के अलावा अन्य सामाजिक कार्य भी उनके लिये महत्त्वपूर्ण थे।
*संविधान निर्माण :*
अन्ततः पूज्य बाबासाहब की योग्यताओं को कांग्रेस की भी मान्यता मिली। स्वाधीनता के बाद 1947 के केन्द्रीय नेहरू मंत्रीमंडल में वे कानून मंत्री बनाये गये। साथ ही भारतीय संविधान बनाने की दृष्टि से गठित संविधान निर्मात्री परिषद् के वे अध्यक्ष भी बनाये गये। इतिहास साक्षी है कि संविधान निर्माण के काम में जहाँ अन्य सदस्य किसी न किसी कारण से अधिक समय देने में असमर्थ रहे, वहीं पूज्य बाबासाहब ने इस काम के लिये अक्षरशः रात और दिन एक कर दिये। इसलिये जब उन्हें संविधान निर्माता कहा जाता है तब इसमें जरा सी भी अतिशयोक्ति नहीं होती।
संविधान के प्रथम पृष्ठ पर "राम दरबार"- महात्मा बुद्ध --"महावीर स्वामी और गुरु नानक देव जी की चित्रावली अंकित है, यह बाबासाहेब की ही देन है ।
हमारा संविधान एक तरह से आधुनिक भारत की समाज-व्यवस्था का आलेख है। इसीलिये कई लोग इसे "मनुस्मृति" की तरह "भीमस्मृति' कहते हैं। *बाबासाहेब धरा 370 के प्रावधान के भी प्रखर विरोधी थे , आपके विरोध के बाद भी नेहरु जी ने इसे लागू करवाया .*
*समरसता के पुजारी*
संविधान बनाते समय पूज्य बाबासाहब ने स्वातन्त्र्य, समता और बंधुता इस सिद्धांतत्रयी को आधार बनाया। उनका मानना था कि अपरिमित स्वातंत्र्य से समता को खतरा होता है और अत्यधिक समता से स्वातंत्र्य को खतरा होता है। इन दोनों के विरुद्ध संरक्षण की गारंटी केवल बंधुता में ही है। बंधुता याने हम सब भाई-भाई हैं यह विचार । इसी को एकात्मता कहा जाता है, यही समरसता है। इस तरह उन के तत्त्वज्ञान में बंधुता याने समरसता का स्थान बहत ऊँचा है। अतः उन्हें हम समरसता के पुजारी कह सकते हैं।
संविधान निर्माण के काम में उन्होंने जो अथक परिश्रम किये उनके परिणाम स्वरूप वे अत्यधिक बीमार हुए। इलाज के लिये उन्हें एक नर्सिंग होम में भर्ती किया गया। वहाँ उन का परिचय डॉ. सविता कबीर से हुआ, जिन्होंने इनकी पूरे मनोयोग से सेवा की। बाद में उन दोनों का विवाह हुआ।
*अनुयायियों को सही दिशा :*
अपने द्वारा निर्मित संविधान की भावना के प्रति वे कितने प्रामाणिक रहते थे इसका एक उदाहरण है। 1954 के भंडारा लोकसभा उपचुनाव में वे प्रत्याशी थे। तत्कालीन व्यवस्था के अनुसार मतदाताओं को प्रथम और द्वितीय वरीयता के मत देने थे। प्रथम वरीयता के मतों से परिणाम न आया तो द्वितीय वरीयता के मतों की गिनती होती थी। दूसरा मत किसी भी उम्मीदवार को न देने को "मत जलाना" कहते थे। उस उपचुनाव में परिस्थिति ऐसी थी कि यदि आंबेडकर जी के समर्थक अपना दूसरा मत जलाते तो ही वे जीत सकते थे, अन्यथा कांग्रेस जीत जाती। लेकिन उन्होंने अपने समर्थकों से स्पष्ट रूप से कहा, "मैं अपने अनुयायियों को संविधान की भावना के विपरीत आचरण नहीं करने दूँगा, भले ही चुनाव हार जाऊँ"। ठीक
वैसा ही हुआ। वे चुनाव हार गये। लेकिन उनके लिये चुनावी सफलता से सिद्धांत कहीं अधिक ऊँचे थे।
1952 में एक सामाजिक कार्य के लिये जनता से निधि एकत्रित की गई थी। उससे संबंधित कार्यकर्ताओं की बैठक पूज्य बाबासाहब ने ली। उन्होंने देख लिया था कि कुछ रसीद पुस्तकें वापस नहीं आई हैं, इसलिये एकत्रित धनराशि का हिसाब व्यवस्थित रूप से नहीं मिल रहा है। इस पर वे बहुत नाराज हुए और उन्होंने जोर देकर कहा कि जनता के दिये एक-एक पैसे का पूरा हिसाब रखना आवश्यक है और ऐसा न करना महापाप है। इस तरह सामाजिक कार्यकर्ताओं की गलत आदतों के बारे में वे अत्यधिक सतर्क रहते थे।
लाभ के पद पर रहते हुए अपने रिश्तेदार-परिचितों द्वारा किसी की सिफारिश किया जाना उन्हें एकदम नापसन्द था। जब वे कानून मंत्री थे तब उनके पुत्र ने दो व्यवसायियों की सिफारिश की। उस समय उन्होंने अपने पुत्र से कहा, "मैं यहाँ कानून मंत्री हूँ, तुम्हारा पिता नहीं। मैं तुम्हारा काम नहीं कर सकता। बिना रुके मेरे केबिन से बाहर निकल जाओ।" अपने व्यवहार से ऐसा अनुपम आदर्श उन्होंने सबके सामने रखा।
*मंत्रीपद का त्याग*
कानून मंत्री के रूप में पूज्य बाबासाहब ने प्रसिद्ध "हिन्दू कोड बिल" बनाया जो सिख, बौद्ध, जैन, प्रार्थनासमाजी, आर्यसमाजी इत्यादि समेत सभी हिन्दुओं पर लागू होता था। इसमें महिला, दलित इत्यादि सबको समान अधिकार दिये गये थे। लेकिन पं. नेहरू से इस संबंध में उनके कुछ मतभेद हुए जिसके का
उन्होंने मंत्रीपद से त्यागपत्र दे दिया। इस तरह सैद्धांतिक कारणों से मंत्रीपद छोड़ने वाले इने गिने अव्यावहारिक" और "पागल" लोगों के वर्ग में वे भी समिति हो गये।
उनके द्वारा स्थापित शेड्यूल कास्ट फेडरेशन में दलितों के अतिरिक्त अन्य किसी के सम्मिलित होने की संभावना बहुत कम थी। अतः समान विचारवाले अन्य लोग भी निकट आ सकें इस दृष्टि से उन्होंने रिपब्लिकन पार्टी नामक राजनीतिक दल की स्थापना की।
*बौद्ध धर्म में प्रवेश*
अब उनके जीवन का संध्याकाल आ गया था। 1935 में हिन्दू धर्म छोडने की बात वे कह चुके थे। लेकिन इस झटके का भी होना चाहिये वैसा असर सवर्ण हिन्दुओं पर नहीं हुआ। *फिर भी इतने वर्ष हिन्दू धर्म न छोड़ते हुए वे दलितोद्धार के कार्य में लगे रहे।* लेकिन अब उन्हें ऐसा लगने लगा कि उन के जीवनकाल में उनका उद्देश्य सफल नहीं होगा। उन्हें दलित समाज में दूसरा ऐसा कोई नेतृत्त्व भी नहीं दिख रहा था जो उन्हें महान् भारतीय संस्कृति से जोड़े रखकर उनका उद्धार कर सके। इसलिये उन्हें लगा कि अब इस बारे में जल्दी ही कुछ करना होगा, अन्यथा दलितों के मुसलमान या ईसाई बनने का खतरा है। ऐसा करने से उनका भारतीय संस्कृति से ही नाता टूट जाता, अत: यह बात उन्हें स्वीकार नहीं थी। इसलिये भारत की मिट्टी में जन्मे और भारतीय संस्कृति का अभिन्न अंग ऐसे सिख और बौद्ध धर्म के बारे में वे विचार करने लगे और अंततोगत्वा बौद्ध धर्म में प्रवेश लेने का निर्णय लिया। अन्य कारणों के अलावा इसका एक कारण यह भी था कि विश्व के अनेक देशों में बौद्ध धर्म का प्रभाव है, अत: उनका विश्वास था कि ऐसा करने से उन देशों से भारत के संबंधसुदृढ़ होंगे। *14 अक्टूबर 1956 को विजयादशमी के दिन नागपुर की प्रसिद्ध दीक्षा भूमि में लाखों दलितों के साथ उन्होंने सामूहिक रूप से बौद्ध धर्म में प्रवेश किया।*
इसकी पूर्व रात्रि को (13 अक्टूबर को) नागपुर के श्याम होटल में भारतीय बौद्धजन समिति द्वारा आयोजित एक बैठक में प्रमुख कार्यकर्ताओं के समक्ष उन्होंने इस धर्म परिवर्तन की भूमिका स्पष्ट की, जो उनकी वैचारिक उड़ान की क्षमता को दर्शाती है।
*"दलितोद्धार के लिये केवल दलितों ने काम किया तो सफलता नहीं मिलेगी।*
अन्य लोगों ने भी यह काम करना चाहिये। इसके लिये हमारे कार्य का आधार (Base) बड़ा होना चाहिये। इस दृष्टि से तीन तरह के लोग हमारे साथ आ सकते हैं।
(1) सभी दलित जिनमें बौद्ध और अबौद्ध दोनों होंगे
(2) सभी बौद्ध जिनमें दलित और दलितेतर दोनों होंगे
(3) रिपब्लिकन जिनमें कुछ दलित भी न होंगे और बौद्ध भी न होंगे।
इस तरह एक सामाजिक समूह (दलित), एक धर्ममत (बौद्ध) और एक राजकीय मत (रिपब्लिकन) इन तीनों के जितने भी क्रमचय-संचय (Permutations- Combinations) हो सकते हैं वे सब हमारे कार्य का आधार बनेंगे।" अत: आज यदि वैचारिक संघर्ष होना हो तो उसका स्वरूप दलित विरुद्ध दलितेतर या हिन्दू विरुद्ध अहिन्दू ऐसा न होकर जातिवाद के समर्थक विरुद्ध जातिवाद के विरोधक ऐसा होना चाहिये।
*नियति की विडम्बना*
*जिस तरह ईसा मसीह के निर्वाण के बाद सेंट पॉल ने ईसाई धर्म की पुनर्व्याख्या (Restatement) करके उसे व्यवस्थित रूप दिया था, उसी तरह आधुनिक काल में तीन महापुरुष बौद्ध धर्म की पुनर्व्याख्या कर उसे व्यवस्थित रूप देना चाहते थे। उनमें वैसी क्षमता भी थी, परंतु यह नियति की विडम्बना ही है कि कम आयु या परिस्थितिवश ये तीनों ही महापुरुष ऐसा न कर सके।*
(1) स्वामी विवेकानंद ने अपने अंतिम दिनों में अपने शिष्य स्वामी स्वरूपानंद को लिखे एक पत्र में कहा था, "बौद्ध धर्म के बारे में मेरे विचारों में क्रांतिकारी परिवर्तन हुए हैं। संभव है इसकी विस्तृत व्याख्या करने के लिये मैं जीवित न रहूँ। यह काम तुम्हें करना होगा।"
(2) विश्व बौद्ध परिषद (World Buddhist.Council) के अध्यक्ष बादेश (म्याँमा) के ॐ चान ठून का मानना था कि हिन्दू, सिख, बौद्ध, जैन ये सब व्यापक हिन्दू धर्म के अंतर्गत आते हैं। वे इसे "सनातन धर्म" कहना अधिक पसंद करते थे। भारत और दक्षिण-पूर्व एशिया, जिसे वे "जंबूद्वीप" कहते थे इस सनातन धर्म की छत के नीचे एकत्र हो सकते हैं ऐसा भी उनका मानना था। इस दृष्टि से बौद्ध धर्म के बारे में पुनर्विचार कर बौद्ध धर्मीय देशों को वे यह बात समझाना भी चाहते थे, लेकिन दुर्भाग्य से जब वे भारत-प्रवास पर थे तभी
ब्रह्मदेश में राज्यक्रांति होकर वहाँ की सत्ता अधार्मिक शासकों के हाथों में आ गई और इस कारण ऊँ चान ठून का स्वप्न पूरा न हो सका।
(3) 20 नवंबर 1956 में काठमांडू में आयोजित विश्व बौद्ध परिषद के अधिवेशन में डॉ. अम्बेडकर जी का अविस्मरणीय भाषण हुआ और उनकी लिखी पुस्तक "Buddha and His Dhamma" यह बताते हैं कि उनका बौद्ध धर्म का अध्ययन कितना गहरा था। लेकिन दुर्भाग्य से बौद्ध धर्म ग्रहण करने के बाद वे दो माह भी जीवित न रह सके।
*मृत्यु*
क्रोध दो प्रकार का होता है । पहला घृणा में से उत्पन्न (राक्षस का क्रोध) और दूसरा प्रेम में से उत्पन्न (माँ का क्रोध)। पूज्य बाबासाहब का क्रोध दूसरे प्रकार का था। उनका लगभग सारा जीवन दलितों पर होने वाले अत्याचारों को समाप्त करने हेतु किये गये संघर्षों में बीता, परन्तु फिर भी वे सवर्णों की मानसिकता बदलना चाहते थे, उन्हें शत्रु नहीं मानते थे। किन्तु इन संघर्षों के कारण वे ऊपर से अत्यंत कठोर दिखते थे। फिर भी उनका हृदय अत्यंत कोमल और दया से परिपूर्ण था। उनके जीवन की अंतिम घटना उनके व्यक्तित्त्व के इसी पहलू को दर्शानेवाली है।
वे स्वयं बहुत बीमार थे। फिर भी जब उन्हें मालूम हुआ कि उनका माली बीमार है तो वे उस अवस्था में भी एक व्यक्ति को अपने साथ लेकर छड़ी के सहारे उसके घर गये, उसे सांत्वना दी और घर आकर उसके लिये दवा भिजवाई। इसके दूसरे दिन ही 6 दिसम्बर 1956 को उनका प्राणान्त हो गया।
*डॉक्टर आम्बेडकर के पश्चात्*
डॉक्टर आम्बेडकर जी का सक्रिय जीवनकाल स्वाधीनता संग्राम के अंतिम दौर से लेकर स्वाधीनता प्राप्ति के बाद के प्रथम कुछ वर्षों तक का होने के कारण स्वाभाविक रूप से आज के भारत पर उनका अधिक प्रभाव है। महात्मा फुले जी के कार्य का जोर शिक्षा और विभिन्न संस्थाओं के माध्यम से समाज प्रबोधन और समाज सुधार पर अधिक था, जबकि आंबेडकर जी के कार्य का जोर सामाजिक और राजनीतिक संगठनों के माध्यम से दलितों को उनके अधिकार दिलाने हेतु संघर्ष करने पर अधिक था। उस-उस काल की परिस्थितियों में ये दोनों ही बातें उचित और आवश्यक थीं। परंतु इस कारण आंबेडकर जी के कट्टर समर्थक और घोर विरोधी ये दोनों ही अधिक मात्रा में हैं, जो किसी एक छोर पर जाकर ही उनके बारे में सोचते हैं और उसके अनुसार काम करते हैं, जिसके अच्छे-बुरे परिणाम सारे देश पर होते हैं । अतः किसी भी छोर पर न जाते हुए उनके जीवन का वस्तुनिष्ठ अध्ययन और उसके प्रकाश में काम करना आवश्यक है, क्योंकि तभी देश का कल्याण होगा।
*मुख्य रूप से आंबेडकर जी के बारे में यह धारणा है कि वे हिन्दू धर्म के घोर विरोधी थे, क्योंकि उन्होंने हिन्दू धर्म को त्यागकर बौद्ध धर्म को अपनाया था। इस कारण एक ओर तो कुछ आंबेडकरवादी हिन्दुत्व के विरोधी बन जाते हैं तो दूसरी ओर कुछ हिन्दुत्ववादी आंबेडकर और आंबेडकरवादियों के विरोधी बन जाते हैं। इन दोनों ही बातों से देश का नुकसान होता है। अतः नीचे लिखी ऐतिहासिक दृष्टि से सत्य हैं ऐसी बातों पर विचार किया जाना चाहिए:*
1. आंबेडकर जी ने हालांकि हिन्दू धर्म छोड़ने की घोषणा 1935 में की, परन्तु उन्होंने इसका क्रियान्वयन 21 वर्ष के बाद और अपनी मृत्यु के मात्र 2 महीने पहले 1956 में किया।
2. हिन्दू धर्म छोड़कर बौद्ध धर्म अपनाते समय उन्होंने स्पष्ट रूप से कहा है कि अपने दलित समाज को भारत देश और इसकी महान् संस्कृति से जोड़े रखने के लिये ही हम सब बौद्ध धर्म को अपना रहे हैं।
3. आम्बेडकरजी ने कानून मंत्री के रूप में जो 'हिन्दू कोड बिल' प्रस्तुत किया था उसमें 'हिन्दू' के अंतर्गत 'हिन्दू, सिख, बौद्ध, जैन, प्रार्थनासमाजी, आर्यसमाजी इत्यादि' ये सब आते हैं।
उपरोक्त बातों पर गहराई से विचार करने पर इसी निष्कर्ष पर पहुँचा जाता है कि आंबेडकरजी हिन्दू धर्म के विरोधी न होकर इसमें विकृति इस रूप में जाति के आधार पर जो ऊँच-नीच की भावना और उसके कारण जो अस्पृश्यता की प्रथा आई उसके विरोधी थे और वे दलित समाज को भारत और भारतीय संस्कृति से जोड़े रखना चाहते थे। इस निष्कर्ष पर पहुँचने के बाद आंबेडकरजी के बारे में दोनों अतिवादी विचार समाप्त हो जायेंगे। इसी में देश का कल्याण है।
*अनेक महापुरुष ऐसे हैं कि जिनके व्यक्तित्व का कोई पहलू अन्य बातों में दब सा जाता है। जैसे-*
# आध्यात्मिक विभूति स्वामी विवेकानन्द (आधुनिक वैज्ञानिक दृष्टि),
# स्वाधीनता संग्राम सेनानी लोकमान्य तिलक (आध्यात्मिक दृष्टि 'गीतारहस्य'),
# स्वातंत्र्यवीर सावरकर (महान् कवि) इत्यादि।
# इसी तरह दलितोद्धार के सारे संघर्षों के बीच भारत रत्न डॉक्टर आम्बेडकर जी के शोधकर्ता चिन्तक इस रूप के बारे में लोग कम ही जानते हैं (आर्य, वेद-पुराणों की रचना में अब्राह्मणों का योगदान, Who were Shudras इत्यादि)। भारत जैसे स्वाधीन देश में इस प्रवृत्ति के लोगों की भी आवश्यकता है, अत: उस स्तर के लोगों ने भी आम्बेडकर जी से प्रेरणा लेनी चाहिये।
*उपसंहार*
साधारणतः सामाजिक सुधार करनेवाले महापुरुषों के अनुयायी/समर्थक और आलोचक/विरोधी ऐसे दोनों प्रकार के लोग होते हैं। जो अनुयायी/समर्थक होते हैं वे सोचते हैं कि संबंधित महापुरुष ने जो और जैसा किया वैसा ही हम करेंगे। वे यह नहीं सोचते कि समय के साथ अनेक बातें बदलती हैं। अतः यथावत् अनुकरण सामान्यत: ठीक नहीं होता। उदाहरण के लिये, युद्धकौशल में छत्रपति शिवाजी और महाराणा प्रताप को आदर्श माननेवाले लोग आज जिन शस्त्रों का चलन है उनमें निपुणता प्राप्त करते हैं, छत्रपति शिवाजी का अनुकरण करते हुए तलवार युद्ध में या महाराणा प्रताप का अनुकरण करते हुए भाला युद्ध में निपुणता प्राप्त करने का प्रयास नहीं करते। इसलिये सोच ऐसी होनी चाहिए कि सामाजिक सुधार करनेवाले महापुरुषों ने उस समय की सामाजिक विकृतियों को समाप्त करने के लिये उस समय जो तरीका उचित था उस तरीके से प्रयास किया, मैं/हम आज जो सामाजिक विकृतियाँ हैं उन्हें समाप्त करने के लिये आज जो तरीका उचित है उस तरीके से प्रयास करूंगा/करेंगे। जो आलोचक/विरोधी होते हैं वे उनकी अधिकांश/सभी बातों का विरोध करते हैं। इसका मुख्य कारण यह होता है कि वे संबंधित महापुरुष द्वारा किये गये कामों का आज के परिप्रेक्ष्य में विचार करते हैं। यदि वे उस महापुरुष का काल और तब की परिस्थिति को ध्यान में रखते हुए विचार करेंगे तो उन्हें अधिकांश बातें समझ में आयेंगी। फिर वे संबंधित महापुरुष के आलोचक/विरोधी नहीं रहेंगे। वैसे भी किसी महापुरुष द्वारा किये हुए सभी कामों/बातों से सहमत होना आवश्यक नहीं। यह बात अनुयायी/समर्थकों ने भी समझनी चाहिये।
इस दृष्टि से डॉक्टर आम्बेडकर जी का उदाहरण उल्लेखनीय है। उन्होंने महात्मा फुले को अपना गुरु माना था, जिन्होंने कहा था कि ब्राह्मण ईरान से भारत आये। आम्बेडकर जी ने अध्ययन करने के बाद जब यह देखा कि उपरोक्त बात गलत है, तो उन्होंने नि:संकोच रूप से उस बात का खण्डन किया। किन्तु इसका अर्थ यह नहीं हुआ कि आम्बेडकर जी के मन में फुले जी के प्रति जो आदर का भाव था वह समाप्त हो गया और न ही फुले जी के समर्थकों ने उन्हें फुले विरोधी माना।
एक और बात ध्यान में रखना आवश्यक है। सामाजिक सुधार से संबंधित लक्ष्य दूरगामी होते हैं, अत: वे किसी एक व्यक्ति के जीवनकाल में सामान्यतः प्राप्त नहीं होते। अतः ऐसे महापुरुषों की सफलता का मापदण्ड उन्होंने अपने जीवन में कितना लक्ष्य प्राप्त किया यह न होकर उनका लक्ष्यप्राप्ति का मार्ग कैसा था और उनके बाद उस मार्ग पर कितने और कैसे लोग चले यह होता है। इस दृष्टि से विचार करें तो यह ध्यान में आता है कि फुले जी और आंबेडकर जी के लक्ष्यप्राप्ति के मार्ग के कारण समाज न टूटते हुए (जिसकी बहुत अधिक संभावना थी) उसमें सुधार हुए और उनके लक्ष्यप्राप्ति की दिशा में आज उनके अनुयायियों के अलावा अन्य विचारोंवाले लोग भी बड़ी संख्या में चल रहे हैं।
*अतः आवश्यकता इस बात की है कि इन महापुरुषों से प्रेरणा लेकर आज के परिप्रेक्ष्य में जो सामाजिक सुधार आवश्यक हैं, उनके लिये उचित तरीके से प्रामाणिक प्रयास करनेवाले लोग अधिक से अधिक संख्या में हों, जिनके कार्य करने का एकमात्र निकष उन समस्त समाज सुधार करनेवाले महापुरुषों की ही तरह देश और समाज का हित हो। इसी में ऐसे जीवनचरित्रों का अध्ययन करने की सार्थकता है।*